मेरे गाँव के खेल (ब्लॉग से चकमक पत्रिका के पन्नों पर पहुँचा)
आदिवासी पहचान पर…
आदिवासी लोगों, जैसे मुरिया, गोंड, माड़िया, हल्बा, धुरवा, का अपना अलग-अलग रहन-सहन, वेशभूषा-पहनावा, त्यौहार, देवी, गुड़ी, खान-पान, नाच होता है| हमारे त्यौहार कई सारे हैं जैसे-बीजा पंडुम, कोड़ता, कुरमी, ताड़माने, सिकुड़पंडुम| ये सभी बहुत धूम-धाम से मनाते हैं|
हर एक जाति वाले अलग-अलग त्यौहार मनाते हैं| भाषा भी अलग-अलग बोलते हैं| हल्बा और धुरवा लोगों का भाषा अलग है लेकिन माड़िया, मुरिया और गोंड, इन सबका भाषा एक जैसा है| हालांकि थोड़ा बहुत अंतर होता है| जैसे मैं भी एक गोंड आदिवासी हूँ लेकिन जब मैं दूसरे जिले के गोंड आदिवासी के साथ बात करता हूँ तो थोड़ा बहुत अंतर होता है| जैसे हम लोग हैंडपंप को तेंडने को हमारी गोंडी में कहते हैं- ‘बोरिंग नहसा’ और दूसरे जिला के गोंड -‘बोरिंग विहका’ बोलते हैं| सूखा को हम ‘वस्ता‘ बोलते हैं| दूसरे जिला वाले ‘वेत्ता’ बोलते हैं| मैं अभी गोंड लिखता हूँ लेकिन मेरा रिकॉर्ड यानी पटवारी के पास मुरिया लिखा है| लेकिन माड़िया, मुरिया, गोंड एक ही है|
हर जगह आदिवासियों की संस्कृति या फिर उनकी भाषा में कुछ-न-कुछ ज़रूर बदलाव आता जा रहा है| जैसे आजकल- ‘नानो ली वाया, रे रे लोयो रे रे ला’ – अपने पारपरिक गानों को छोड़कर हिंदी बॉलीवुड गानों के पीछे पड़े हैं| हिंदी गाने ज्यादा सुनने के कारण अपने गानों को कुछ लोग भूलते जा रहे हैं| आदिवासियों में है ढोलक लेकिन आजकल DJ मन लगाकर नाचते हैं जिसकी वजह से ढोलक नाचना बहुत कम हो रहा है| DJ में एक-से-एक गाने हैं और ढोलक में तो उतना नहीं है| DJ लगाए मतलब बच्चे लोग जल्दी इकठ्ठा हो जाएंगे क्योंकि कैसा भी नाच सकते हैं इसलिए उनको बहुत मजा आता है| मतवार लोग भी नाचने लग जाते हैं, अपना पूरा पागलपन दिखा देते हैं| कुछ लोग ढोलक और DJ दोनों नाचना चाहते हैं|
गोंडी भाषा में या और भी भाषा जैसे हल्बी और धुरवा में आजकल शुद्ध बात नहीं करते हैं| जैसे गोंडी में हिंदी मिक्स करते हैं| जैसे “बे दायंती ड़ा” की जगह अब बहुत लोग “बे दायंती ‘बे’ (अबे, चल बे, वाला ‘बे’)” बोलते हैं| अनेक प्रकार के पेड़ों के नाम भी नहीं जानते हैं क्योंकि हम लोग पहली से अभी तक हॉस्टल में रहकर पढ़ रहे हैं तो जंगल कम जाते हैं| जैसे मेरी बहन नहीं पढ़ती है और हमेशा जंगल जाती है, वो मेरे से ज़्यादा पेड़ों के बारे में बता देगी| मैं स्कूल में हूँ तो उतना नहीं जान पा रहा हूँ| पहनावा में लुंगी वगैरह छोड़कर जीन्स मन पहन रहे हैं| पिताजी लोगों के पास तो जीन्स है ही नहीं इसलिए वो लोग तो हमेशा लुंगी लगाते हैं| हम लोगों के पास जीन्स है| जीन्स पहन के एक साथ जाने में अच्छा लगता है| अपना बीज जैसा वाला प्रकृति माला पहनना छोड़कर भगवान का चेन पहन रहे हैं| इस तरह बहुत सारे बदलाव आ रहे हैं|
आजकल आदिवासी भी शिक्षित हो रहे हैं और दुनिया के बारे में जान रहे हैं| हिंदी, English सीख रहे हैं जिससे देश-विदेश में भी बात कर सकते हैं| लेकिन अपने आदिवासियों के बारे में नहीं जान रहे हैं| अगर अपनी भाषा, संस्कृति के बारे में नहीं जानेंगे तो देश-विदेश के लोग अगर जानना चाहेंगे तो हम उन्हें क्या बताएंगे? कुछ लोग इसीलिए अपना संस्कृति बचाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत कर रहे हैं| जैसे कोया समाज संघटन बनाकर DJ नाचने पर जुर्माना, पैसा (कहीं-कहीं 11000 रुपये) तक पकड़ रहे हैं| साथ-ही-साथ गाँव में होने वाली त्यौहार ही मनाया जाएगा ऐसे नियम बनाए जा रहे हैं| होली, राखी, दिवाली पर रोक लगा के रहे हैं| पर मेरे ख़याल से रोक नहीं लगाना चाहिए क्योंकि अगर किसी को मजा आ रहा हो इन त्यौहारों को मनाने में तो मनाने देना चाहिए|
विदेश हो या कहीं भी, हम अपने आदिवासी परम्परा को, अपनी भाषा, संस्कृति को कभी नहीं भूलेंगे| हमें आदिवासी समाज पर अध्ययन करना चाहिए| अध्ययन करके आदिवासी समाज पर एक-से-एक किताबें लिखने चाहिए जिससे देश-विदेश में जान सकें|
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(चित्र मेरे दोस्त ‘पोज्जा वेट्टी’ ने बनाया है)
डुंडुल पिल्ला (धूल वाले बच्चे)
डूंडी-डूंडी पिल्लानोम
डुंडुल आस करसानोम
टायर तिन गाड़ी इन्जो करसानोम
सगा इन्जो करसानोम
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मेंडी-मेंडी पिल्लानोम
मुंडा आस मेंड करसानोम
चुडीलोम पिल्लानोम
करसो-करसो पेड़सानोम |
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नंगे-पुंगे बच्चे
गंदे होकर खेलेंगे
टायर को गाड़ी बना के खेलेंगे
सगा बोल के खेलेंगे
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टिंगने-टिंगने बच्चे
झगड़ के भी खेलेंगे
छोटे से बच्चे
खेलते-खेलते बढ़ेंगे
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(चित्र मेरे दोस्त ‘पवन करटामी ‘ ने बनाया है)
हमारे गाँव में इसाई धर्म
हमारे गाँव में इसाई धर्म नहीं था, लेकिन पड़ोसी गाँव के लोग प्रचार करने पर, उनके गाँव पूजा करने के लिए जाते थे| पूजा के लिए जाते-जाते अपने गाँव में भी चर्च बनाए और पूजा करते थे| धीरे-धीरे और भी लोग जुड़ने लगे और पूजा करते थे|
ऐसे ही पूजा करने से होता, लेकिन जब गाँव के वड्डे लोग वड्डे करते हैं तब इसाई पूजा वाले पहले ही गाय मार के खाते थे| गाँव के गुड़ी में, यानी मंदिर में, वड्डे करने नहीं आते थे इसलिए गाँव के सियान और वड्डे लोग इसका मीटिंग लिए जिसमें इसाई धर्म को मानने वालों को समझा के देखे कि पूजा करते हो तो ठीक है लेकिन गाय-वाय पहले मार के मत खाओ|
तब भी इसाई धर्म वाले मानने से इनकार कर दिए| इसलिए गाँव के लोग उन्हें बहुत मारे, उनके पुस्तक जला दिए| अन्दर छुपे हुए वाले को भी ढूंढकर मारे|
इनमें से एक मेरी बुआ थी| गाँव के हर किसी-किसी के भाई-बहन थे, लेकिन गाँव की तरफ से मिलकर पिटाई कर रहे थे| वे लोग फिर भी नहीं माने इसलिए इन्हें गाँव से भगा दिया गया| वे अब सुकमा में रहते हैं| अब इन्हें गाँव में आने पर तो घर में घुसने ही नहीं देते हैं| मेरे पिताजी तो बुआ से बात भी नहीं करते हैं| अब वे इमली, आम, छीन्द गिराकर सुकमा ले जाते हैं|
मुझे लगता है कि इन्हें नहीं भगाना था क्योंकि वे अब अपना जल-जमीन, फल-फूल छोड़ कर शहर में रह रहे हैं| लेकिन एक तरफ से लगता है कि भगाना था क्योंकि वड्डे लोग कहते थे कि वे लोग वड्डे करने से पहले मांस खाने पर देवता नहीं मानता है| ऐसा वड्डे लोग कहते हैं| इसलिए मुझे लगता है कि इन्हें गाँव से भगाना था|
मुझे लगता है कि इन्हें इसाई धर्म छोड़ के अपना देवी-देवता, आनल पेन को ही पहले जैसा मानने लगें|
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मेरे गाँव के खेल
मेरे गाँव मे बहुत से अलग–अलग खेल खेलते हैं|
जहाँ तक मुझे पता है.. गुल्ली डंडा ,चक्का, कोंगो काल, कूच-कूच कोरदी, देस तिड़िया ईसड़ती, बाटी, जीरको, कम्क्पेन्डुल, गूटेरी या बर्रेडांडी या नमक, पिट्टुल, इन्टुड़ -पुन्टुड़, गोबर डंडा, छुपन-छुपाई, वेटा, सग्गा खेल, नक्सली-पुलिस और क्या-क्या दुनियादारी खेलते हैं| बहुत से खेलों के तो कुछ नाम ही नहीं है| इनमे से कुछ खेलों को तो आजकल नहीं खेल रहे हैं क्योंकि पुराने खेल धीरे-धीरे भूलते जा रहें हैं| कूच-कूच कोरदी, देस तिड़िया ईसड़ती, इन्टुड़ -पुन्टुड़ इन खेलो को आजकल हमारे गाँव में नहीं खेल रहे है|
पहले बड़े-बड़े लड़का-लड़की खेलते थे लेकिन आजकल हम लोग क्रिकेट, फुटबॉल, बालीबाल, कबड्डी जैसे खेल खेलने लग गए हैं| बाटी और चक्का दोनों खेलों को नक्सलियों ने बंद कर दिया थे क्योंकि मीटिंग के लिए बुलाने पर हम बाटी या चक्का खेलते रहते थे| इसलिए वे बाटी जमा कर लेते थे और चप्पल से बनाया चक्का को जला देते थे| तब से हम बाटी और चक्का नहीं खेल रहे हैं|
आजकल बच्चे लोग सग्गा खेल, वेटा, गोबर डंडा, छुपन-छुपाई खेलते हैं |
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इन्टुड़ पुन्टुड़ खेल में ये गाते हैं:
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इन्टुड़ पुन्टुड़ काका पुन्टुड़ा टा..
एट्टूरी आकी बुजो बाबले
बाबले-बाबले अंडा
केयल कुसी डंडा
डंडा वाली पानी पूनी केत्तरा
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दादो ना माटा
ठंडी के दिन थे
पास बैठे दादा जी थे
मंद पीते वे कुछ कहते थे
क्या जवानी था मेरा
जैसा कि अभी तुम्हारा
बीते यादें ना होगा दोबारा
चाहे कोई भी काम हो
झटपट मै करता था
सुबह चाहे शाम हो
अब काम ना धाम
बैठे-बैठे हो गया आलसीराम
अब हाथ पैरों मे होता दर्द
जवानी मे था असली मर्द
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चल महुआ बीन
कोरोना के वो दिन
मम्मी कहती चल महुआ बीन
गप्पा भर महुआ बीनता
कितने हैं मैं नहीं गिनता
अगर गिनते-गिनते बीनता
तो मैं बेहोश हो गिर पड़ता |
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अनेक त्योहारों में शामिल होता
नाच-गान का मज़ा लेता
आम त्यौहार में शिकार कर लेता
शिकार का मैं जोर पी देता |
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विभिन्न फलों को खाता था
स्वाद का आनंद आता था |
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कोरोना के वो दिन
महुआ बेच पैसे गिन |
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गुरूजी और मैडम मन की कुछ बातें
बालक आश्रम के आधीक्षक हम पर चिल्लाते थे :
- “सूअर नहीं तो ! ज्यादा जानता हूँ बोलके बात कर रहा है क्या ?”
- दोनों पैरों को बांध के नदी मे फेंक देने से पता चलता |
- ऐ नालायक इधर आ |
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एक सर जो हमारे आश्रम के बगल के रूम मे रहते थे और दूसरे गाँव पढ़ाने जाते थे | जंगल मे गाँव है इसलिए गुरूजी कभी जाते या कभी नहीं | बच्चे पेपर समय भी स्कूल नहीं आते थो गुरूजी हमसे पेपर लिखवाते और कहते :
- “बेटा जैसा पेपर बनाए हो वैसी लिख देना या फिर मै एक उत्तर पुस्तिका भर दिया हूँ, देखकर पास होने लायक उतार देना |”
- “लिखने के बाद सबके लिए यहीं कढ़ाई पर अंडा या चिकन बनेगा |”
(ऐसा हमको ठग देते और नहीं खिलाते)
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सातवी समय के सामाजिक विज्ञान के गुरूजी के डाइलोग है:
- “चारो तरफ़ पानी ही पानी है, जमीन बहुत कम है | चाहे तो पानी एक झटके मे जमीन को डूबा सकता है, लेकिन क्यों नहीं डुबाता बोलो , क्योंकि ये सब भगवान का देन है |”
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गादीरास के गुरूजी का डाइलोग जहाँ मेरे भैया पढ़ते थे, क्लास के समय कोई सोने पर:
- “यहीं से अगर डस्टर फेंक कर मरुँ ना तो नाली भर मूतेगा |”
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अभी जिस स्कूल मे पढ़ता हूँ, उस स्कूल कि एक रसायनिक की टीचर 40 मिनट क्लास मे पढ़ाने आती है और 40 मिनट डाँटकर चली जाती है |
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मतवार*
दारु पीते हैं मुर्गा बाजार में
गाँव के त्यौहारों में, और
पीकर आ जाते हैं घर में
घर के लोग रहते डर में
कहीं झगड़ा ना कर बैठे
नशे मे आते मतवार
किसी पर भी करते वार |
वे ऐसे गुनगुनाते जैसे
हवाओं से बातें कर रहे हों
दिनभर दारू पीते घूमते
रात को घर मे झगड़ा करने आते
नशे मे ये नासमझ होते
समझाओ तो हमसे ही भिड़ जाते
जो गया छुड़ाने उससे भी भिड़ जाते |
मतवारों से लड़ना आसान नहीं
मतवारों से न लड़े, समझदार वही |
* गाँवों, बाजारों मे हर रोज दारु पीकर नशे मे रहते हैं | इन्हें होश नहीं रहता वे मतवार हैं |