बालक आश्रम के आधीक्षक हम पर चिल्लाते थे :
- “सूअर नहीं तो ! ज्यादा जानता हूँ बोलके बात कर रहा है क्या ?”
- दोनों पैरों को बांध के नदी मे फेंक देने से पता चलता |
- ऐ नालायक इधर आ |
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एक सर जो हमारे आश्रम के बगल के रूम मे रहते थे और दूसरे गाँव पढ़ाने जाते थे | जंगल मे गाँव है इसलिए गुरूजी कभी जाते या कभी नहीं | बच्चे पेपर समय भी स्कूल नहीं आते थो गुरूजी हमसे पेपर लिखवाते और कहते :
- “बेटा जैसा पेपर बनाए हो वैसी लिख देना या फिर मै एक उत्तर पुस्तिका भर दिया हूँ, देखकर पास होने लायक उतार देना |”
- “लिखने के बाद सबके लिए यहीं कढ़ाई पर अंडा या चिकन बनेगा |”
(ऐसा हमको ठग देते और नहीं खिलाते)
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सातवी समय के सामाजिक विज्ञान के गुरूजी के डाइलोग है:
- “चारो तरफ़ पानी ही पानी है, जमीन बहुत कम है | चाहे तो पानी एक झटके मे जमीन को डूबा सकता है, लेकिन क्यों नहीं डुबाता बोलो , क्योंकि ये सब भगवान का देन है |”
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गादीरास के गुरूजी का डाइलोग जहाँ मेरे भैया पढ़ते थे, क्लास के समय कोई सोने पर:
- “यहीं से अगर डस्टर फेंक कर मरुँ ना तो नाली भर मूतेगा |”
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अभी जिस स्कूल मे पढ़ता हूँ, उस स्कूल कि एक रसायनिक की टीचर 40 मिनट क्लास मे पढ़ाने आती है और 40 मिनट डाँटकर चली जाती है |
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